शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

व्‍यंग्‍य: होरी की वेदना ..;; रंग के बादर फट गये - नरेन्‍द्र सिंह तोमर ‘’आनन्‍द’’

व्‍यंग्‍य: होरी की वेदना ..;; रंग के बादर फट गये

नरेन्‍द्र सिंह तोमर ''आनन्‍द''

होरी की हुरियारी में छायी मस्‍ती चारों ओर ।

छायी मस्‍ती चारों ओर मगर कछु दुबके फिरते ।।

लिये हाथ में रंग सफेदा, भरें अबीर, गुलाल चहकते ।

भरें अबीर गुलाल चहकते, मगर कछु बिल में घुसते ।।

बिलवाले दिलवाले से होरी वारे कह रहे ।

काहे बिल में दिल घुसा, सब चिन्‍ता कर रहे ।।

कब तक बिल में घुसे पड़े दिल की खैर मनाओगे ।

बिन धड़कन के दिल बिल की कब तक आह छुपाओगे ।।

कोई चोर डकैत आवेगा बिल खोद खाद ले जायेगा ।

दिल चोरी हो या लुट जावे कोई रोज रात को आयेगा ।।

कब तक जाग जाग ऑंखों में पहरेदारी कर पाओगे ।

कब तक चोरी चोरी आ आ कर नजर निगाही कर पाओगे ।।

इक सलाह हुरियारे दे रहे बात बता कर खास ।

छिप्‍पन और छिपावन कर दिल बचने की ना आस ।।

गर दिलवाले बिल में घुसकर दिल जो बचाते ।

तो सब दिलवाले अब तक बिल में घुस जाते ।।

इक मिला था लवली स्‍वीट था, दिल का बस ये रोना है ।

अब चला गया तो चला गया, तेरे छिपने सा का होना है ।।

कौन ले गया लेने वाला, ले गया जो ले गया ।

ले गया कैसे गया, अब गया चला तो चला गया ।।

क्‍या हो गया चोरी दिल ये, या हो गयी लूट ।

बिल में दुबकी सोच रही, मेरी किस्‍मत गयी है फूट ।।

किस्‍मत गयी है फूट, सबको क्‍या मुख दिखलाऊं ।

बिन दिल के अब इस बिल से कैसे बाहर जाऊं ।।

बाहर कुत्‍ते हैं खड़े, करते इंतजार मनुहार ।

पूंछ हिला कर कह रहे, आओ जी सरकार ।।

आओ जी सरकार, हमारे यार, डिनर तैयार रखा है ।

मुर्गे की है स्‍वीट बनाई नहीं जो अब तक चखा है ।।

प्‍लीज जागिये, उठ बैठिये, मैडम अक्‍कलमंद ।

सारे कुत्‍ते आये हैं ले लेकर अपने बिस्‍तर बंद ।।

लेकर बिस्‍तर बंद, द्वार पर वे खड़े भुंकियावैं ।  

देसी और विलाइती सारे अदायें वे दिखलावैं ।।

सारे कुत्‍ते कर रहे पिछले दो हफ्ता से उपवास ।

मैडम संग इक डिनर करिहे पूरी सबकी आस ।।

होगी पूरी सबकी आस, सोच लाइन कुत्‍तन की लग गई ।

बिन दिलवाली मैडम की, भौंका भाकी में निंदिया खुल गई ।।

 

इक अंगड़ाई मार के, फेंक नजर के तीर ।

सब कुत्‍तन को देख के, मैडम भई गंभीर ।।

मैडम भई गंभीर, और फिर दौड़ के बाहर आई ।

मैं इक कुत्‍ते की थी प्‍यारी ये लाइन कहॉं से आयी ।।

है मेरा अलबेला कहॉं, झबरू काला रंग ।

दिल मेरा जो ले गया, कित गया भुजंग ।।

मैं कुत्‍ते की, कुत्‍ता मेरा, पिया वो परम सुहावन ।

डिनर करूं और रूप रचूं  बार बार फिर देखूं दरपन ।।

मेरा झबरू मेरा गबरू नहीं लाइन में आता नजर ।

कित्‍थे है वो मेरा डमरू मैं कराऊंगी उसे डिनर ।।

तभी बीच कुत्‍तों में से था झबरू दौड़ा आया ।

मैं भी इस लैन बिच्‍च में अपनी संगत लाया ।।

ओ हसीना नाजनीना जरा याद करो वो बात बड़ी मशहूर ।

कुत्‍ते सदा झुण्‍ड में रहते मिल बांट कर खाते हैं भरपूर ।।

बीच बीच में भौं भौं कूं कूं, उवाय उवाय भ्‍वयाय ।

जम कर सेवा पूंछ हिलाना, बिना बखत चिल्‍लाय ।।

पर अपनी अपनी किस्‍मत होती क्‍या करिये इसको ठीक ।

जैसी लीला रची विधि ब्रह्मा ने वही होवेगा याद रहे ये सीख ।।

याद ये रखना सीख, नहीं झुण्‍ड शेरों के होते ।

इक अकेला कूद जाये जब सब पानी भरते ।।

नहीं डिनर ना सोवा सावी ना सस्‍ती मस्‍ती करो इन कुत्‍तन के संग ।

शेर कहत बुरा न मानो होली है, आप पर अब आपका फेंक दिया है रंग ।।

 

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

व्‍यंग्‍य- वैलेण्‍टाइन एक स्‍टाइल........इस मुर्दे का वैलण्‍टाइन मना दो

वैलेण्‍टाइन एक स्‍टाइल........इस मुर्दे का वैलण्‍टाइन मना दो

नरेन्‍द्र सिंह तोमर ''आनन्‍द''

वैलेण्‍टाइन की धूम में फंसे लाल बजरंग ।

डाल लाल तौलिया नारि में, डण्‍डा लीनो संग ।।

डण्‍डा लीनो संग जोड़े ढूंढ रहे पार्कन में भीतर ।

लोग लुगाई देख कर देते गीदड़ भभकी तीतर ।।

रस्‍साकस्‍सी चल रही, प्रेमपत्र दिवस पे देखो ।

बजरंगी सब टूट रहे, बिन नाथे सॉंड़ हो जैसे ।।

इक बजरंगी मिल गया नेता बनत भुजंग ।

चुपके से हम पूछ लिये, का बात हुयी है तंग ।।

क्‍या बात हुयी है तंग, क्‍यूं खलनायक बन गये ।

बीवी छोड़ के भागी या फिर बहिन को ले गये ।।

क्‍यूं विचलित हो मित्र, चित्‍त में चैन जो धरिये ।

असल क्‍या है बात भई सो अब हमसे कहिये ।।

बजरंगी शरमा गया, बोला, मुख का खोल कपाट ।

क्‍यूं घुमा फिरा कर रहे व्‍यंग्‍य मजाक सपाट ।।

नहीं यार दादा जरा, बात नहीं कुछ खास ।

इक घरवारी जो मिली, नहीं डालती घास ।।

नहीं डालती घास, न उसका रूप सुहावन ।

सो रोकन वैलण्‍टाइन कों ये फार्मूला है पावन ।।

देखें रूप अपार नव यौवना सब मिलें यहॉं पर ।

जो हम ना कर पा रहे, लेते आ आनंद यहॉं पर ।।

देख के पूरा सीन पाते सुख स्‍वर्ग इसी दिन ।

सो रोकन के वास्‍ते, लेना डण्‍डा तान इसी दिन ।।

जो घरवारी से ना मिला, हम उसे यहॉं तलाशें ।

डर जाते प्रेमी युगल और हम फिर उसे तराशें ।।

छोटा सा ये शहर है, पार्क नहीं ना गार्डन भरपूर ।

इक दिन आता साल में सो आते इतनी दूर ।।

ना ताल कटोरा यहॉं कोई, ना बुद्धा सा मेल ।

बस इक दिन के वास्‍ते देखत आकर खेल ।।

देखत आकर खेल, घर जा किस्‍सा कहते ।

पर बेअसर वो बेखबर उस पे रंग न चढ़ते ।।

जो हम डण्‍डा लाते यहॉं, रोकन वैलण्‍टाइन दिवस ।

धमकाने हड़काने चलें साथ लिये हम ये दिवस ।।

नहीं काम आता यहॉं, पर घर रोज दिखलाता जलवा ।

ससुरी वैलेण्‍टाइन मना दे और खिला दे हलवा ।।

पर वे चौथ पंचमी रटती व्रत बतला कर रोज ।

तब फिर हम पर गुस्‍सा छाता, डण्‍डा बरसाते रोज ।।

इतने में थे आ गये पुलिससिया खाकी वर्दी ।

बजरंगी कूटे सभी, दूर करा दी सर्दी ।।

दूर करा दी सर्दी, जम कर लात लगाईं ।

अस्‍पताल भर्ती किये, हिदायत साथ बताई ।।

खबरदार जो नजर आये किसी पार्क के पास ।

थानेदार सा मना रहे न्‍यू वैलंटाइन खास ।।

अस्‍पताल में पड़े बजरंगी यूं कराहें ।

पूरे अस्‍पताल में गूंज रहीं उनकी ये आहें ।।  

इक बजरंगी के सीने पर डाक्‍टर ने आला आन धरा ।

बजरंगी ने बगल खड़ी इक नर्स पे अपना ध्‍यान धरा ।।

देख नर्स की चंचलता, बजरंगी की सांसे रूक गयीं ।

डाक्‍टर बोला इस मरीज की क्‍यूं हलचल रूक गयीं ।।

सीने में धड़कन नहीं, ना नैनों में चंचलता ।

क्‍यूं इस मुर्दे को पुलिस, लायी यहॉं पे नर्स बता ।।

जाओ इसको मुर्दाघर ले जा ठिकाने पर पहुँचाओ ।

मरा दिमाग और मरा शरीर इन्‍हें यहॉं पे मत लाओ ।।