हास्य / व्यंग्य
का चचा चुनाव लड़बे को मन है का ....चलो एम.पी. आ जाओ चचा
नरेन्द्र सिंह तोमर ''आनन्द''
अब चुनावी चचा का टैम पूरा होइबे का बखत आ गया । जब बखत आ जाता है तो बड़े बड़े बौरा जाते हैं । अर्गल का टैम पूरा हुआ तो वे भी बौरा गये, करोड़ों की करारे नोटो की गडडी संसद में लहरा आये । सोचा कि मुरैना जनरल हो गयी अम्बाह असेम्बली या भिण्ड लोकसभा लायक तो बौरा ही लें । अम्बाह में तो काम नहीं बना अब भिण्ड लोकसभा की आस में अबई तक बौराये हैं ।
साला फागुन का महीना बड़ा विकट होता है, अच्छे अच्छे बौरा जाते हैं आम के पेड़ पर तो बाकायदा बौर आ जाता है वह भी बौरा जाता है । मगर नेता लोग और अफसर तो बसन्त ऋतु में बौराते हैं, बौराना इण्डिया की संस्कृति है, हर भारतीय जब तक बौराता नहीं, लगता ही नहीं कि वह भारत का बेटा है ।
शेषन साहब भी बौराये थे उन्हें भी राजनीतिज्ञों के चुनाव कराते कराते राजनेता बनने और चुनाव लड़ने का चस्का लगा था । जिनके फेवर में सब कुछ किया उन्हींने उन्हें टिकिट नहीं दिया फिर भी पतली गली से चुनावी चचा शेषन ने अपनी हसरत पूरी करने की कोशिशें कीं । अब ये दीगर बात है कि कामयाबी ने कदम नहीं चूमे । वे भी अपने बखत पूरा होते होते खूब बौराये खूब चिल्लाये कि मेरा रंग दे बसन्ती चोला । पर बसन्ती चोला तो क्या किसी मुये राजनेता ने उन्हें पीला रूमाल तक नहीं दिया ।
अब ये चुनावी अखाड़ा मण्डल की गद्दी में ही खोट है तो क्या कहिये, जो भी बैठे है, बौरा जावे है । गलत है, कुछ न कुछ तो गद्दी में गड़बड़ है, हमें तो लगे है कि पाकिस्तान का हाथ होवे है, जॉंच करवानी चाहिये । अब सुनी है कि चावला साहब का बखत आ रहा है, भईया चावला साहब आप अभी तक ठीक ठाक हो, जरा संभल कर रहना, गद्दी गड़बड़ है कहीं बौरा मत जाना ।
हमारे मुरैना में एक बड़ी दिलचस्प बात है कि आप पिछले तीस बरस का इतिहास देखेंगें तो पायेंगें कि किसी भी प्रायवेट स्कूल में जो भी मास्टर नौकरी करने गया, और स्कूल मालिक की रंगदारी जो देखी वह प्रभावित हो गया और अगले ही सत्र में उसने खुद का स्कूल खोल लिया । गोया सिचुयेशन कुछ ऐसी हो गयी कि एक दिन ऐसा आया कि मुरैना के हर अगल और बगल में स्कूल कोचिंग हो गये । हमारे कलेक्टर साहब महेश कुमार अग्रवाल साहब अभी एक दिन एक कार्यक्रम में बोल रहे थे कि जबलपुर जैसे महानगर में भी शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में कम लोग निकल पाते हैं मगर मुरैना जैसे छोटे शहर से प्रतिभाओं की ऑंधी तूफान सा निकलता है और केवल तूफान नहीं बल्कि टॉपर्स का शहर कहें तो सही होगा ।
अब कलेक्टर साहब इत्ता तो समझ ही गये कि चम्बल टापर्स की जन्मदात्री है मगर इन टापर्स के पीछे गरीबी, संघर्ष और बिना सुविधा साधन पढाई लिखाई करने बिना बिजली, दिये (दीपक) और मोमबत्ती से किताबों में ऑंखे फोड़ने का भी एक विकट और पवित्र इतिहास है । खैर असल बात ये है कि अगल बगल और सब बगल में खुले एजुकेशन सेल सेण्टर्स पर भी तो नजर डालिये, जो भी एक बार मास्टरी कर आया वही अगले सत्र में अपनी खुद की दूकान खोल कर प्रिंसिपल बन गया ।
बस बस चुनावी चचा को भी कुछ ऐसा ही बुखार जान पड़े है, अब बखत पूरा हो रहा है तो फुर्सत में का करेंगें । बहुत लड़ा लिया अब खुद ही लड़ लो । अब चचा जब लड़ने की ठान ही लिये हो तो का पता बसन्ती, केसरिया या रंग बिरंगा टिकिट दे कै न दे, ऐसा करो कि चम्बल में आ जाओ । यहॉं चुनाव जीतना आसान है । बस थोड़ी सी सेटिंग बिठानी पड़ेगी बस समझ लो निकल गयी सीट केवल तीन बार वोट काउण्टिंग में बिजली कटेगी, और हरी हराई सीट निकल जायेगी । और इलेक्शन कमीशन के डिस्पले बोर्ड पर शाम तक मनवांछित परिणाम नहीं घोषित होने तक रिजल्ट पॉज बने रहेंगें । जब आप विजयी घोषित होकर आपत्ति दाखिल करने का वक्त निकल जायेगा तब इलेक्शन कमीशन के लाइव डिस्पले पर रिजल्ट शो होंगें । बकाया तो सारे गुण्ताड़े जानते ही हो, मतलब ई.वी.एम. में कैसे गड़बड़ करनी है, डाकमत की गिनती कैसे करानी है, कैसे विरोधी पार्टी के प्रभाव क्षेत्र में ई.वी..एम. पर नाम उलट पुलट पर्ची लगानी है । बटन में करण्ट की खबर फैलाना वगैरह वगैरह, कैसे वोटर्स की कुल संख्या से ज्यादा वोट ई.वी.एम. में से निकलने है । अरे चचा उस्ताद हो यार तुम्हें का बताये । चलो आ जाओ चम्बल में सीट निकलवा देंगें । पक्का एकदम सौ टके पक्का ।
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