गुरुवार, 28 जनवरी 2010

कहत कबीर सुनो भई साधो, बात कहूं मैं खरी.......बिजली जावत देख कर, जनता करी पुकार.....

कहत कबीर सुनो भई साधो, बात कहूं मैं खरी.......बिजली जावत देख कर, जनता करी पुकार.....

Narendra Singh Tomar "Anand"

 

कबिरा बिजली देंख के, जब रह गये यूं दंग ।
देख तमाशा अजब सा
, ठानी रच रस रंग ।।
ठानी रच रस रंग
, पदबन्ध रचा ।
लिखा अपढ गँवार जो जन मन बीच बसा ।।
बिजली को तो जाना है
, वक्त से पहले चली गयी ।
दिन भर पूरे गोल रह
, देर रात को आयेगी ।।
टाँग पसार के दिन भर सोवो
, करो रात में काम ।
चढ जा बेटा सूली पे
, बली करेंगे राम ।।
भली करेंगे राम
, जय श्री राम जय श्री राम ।
सदी 18 का मिले
, फोकट ही आराम ।।
बच्चों के पेपर फिर आये
, लेकिन बिजली कभी न आई ।
भर्ती सारे चोर कर लिये जिनने सूंत के करी कमाई ।।
चोर एक चोरी करे
, फिर भी सीनाजोर ।
अपनी चोरी का दे दोष
, कहता जनता चोर ।।
40 साल से चल रही व्यवस्था
, तब नहीं थी जनता चोर ।
चोरों की सत्ता आते ही अब कहते जनता चोर ।।
पूरी बिजली लील गये
, पर ना लई डकार ।
कानन में है रूई ठुसी
, सोय रही सरकार ।।
करोड अरब के करे घुटाले
, फर्जीवाडे खर्च में डाले ।
दारू बीवी और संग में 56 ऐब और हैं पाले ।।
खर्च वसूली लाली लिपिस्टक औ ऊपर की माँग ।
कैसे पूरति होवे इनकी रोज रचें नित इक स्वांग ।।
कछु लुगाई की फरमाइश कछु रखैलन संग ।
जेबें काट काट जनता की
, करें प्रजा कों तंग ।।
भडिया बैठे बिजली घर में रोज करें भडियाई ।
जो कहुँ जनता करे शिकायत
, जानो सिर पे आफत आई ।।
या चोरी का केस लगावै
, या माँगें पनिहाई ।
जो जनता माई बाप कहावे
, भई अब गरीब लुगाई ।।
लोड चेक के नाम पे
, ठांसें रोज डकैत ।
सरकारी लैसन्स पे
, लूटत फिरें भडैत ।।
इन भडियन के राज में
, खूब मचा अंधेर ।
अंधकार कायम रहे
, कोडवर्ड का ये शेर ।।
अब जनता दीखे चोर
, कहें लीलै बिजली जनता ।
जब बिजली थी खूब यहाँ
, काहे चोर बजी न जनता ।।
तब भी काँटे खूब डले थे. खूब जले थे हीटर ।
जम कर बिजली खूब जलाते और नहीं थे मीटर ।।
बिन बिजली के बिल मिल रहे अब अंधाधुंध अनंत ।
अब बढी गयी आबादी
, बोलो सरकारी संत ।।
6 शहर भारत के ऐसे
, आध करोड ऊपर आबादी ।
ना बिजली का पत्ता खडके
, ना ऐसी बर्बादी ।।
काँटे कटिया वहाँ भी डलते
, ए.सी. हीटर की भरमार ।
पहले झाँको गिरेबान में गुण्डा भडियन के सरदार ।।
हालत गुण्डा राज की
, देख कें रहे कबीरा रोय ।
पब्लिक नर्राती फिरे
, राजा रहो है सोय ।।
राजा रहो है सोय. कान में डारे नौ मन तेल ।
पाछें रजिल्ट से बुरो रहे
, छात्रों यही करमन के खेल ।।

 

नरेन्‍द्र सिंह तोमर ''आनन्‍द''
........क्रमश: जारी रहेगा अगले अंक में

 

रविवार, 24 जनवरी 2010

कहत कबीर सुनो भई साधू.....बात कहूँ मैं खरी____

कहत कबीर सुनो भई साधू.....बात कहूँ मैं खरी

नरेन्‍द्र सिंह तोमर ''आनन्‍द''

 

कबिरा फँसे बाजार में, माँगें खुद की खैर ।
कापीराइट में ले गये सब रचनन के खैर ।।
पढे लिखेन की मंडी में
, कबिरा अपढ गंवार ।
कवियन मूरख नाम धर
, इज्जत रहे उतार ।।
इज्जत रहे उतार
, सुनावें नित नूतन कविता ।
कबिरा रोय पुकार
, कित गयी छंद की सविता ।।
ना दोहा ना चौपाई
, ना रोला ना मुक्तक ।
कहाँ सवैया
, सोरठा ना रची कुंडली अभी तक ।।
बडे बडे कविराय
, मण्डी के मठराज सलाह कबीरा दीनी ।
जाइन मठ कर
, लिख तारीफा जो आपुन हित चीन्ही ।।
वरना रहे फकीरा बन फिरे गरीबा गमछा टांगे फिरिहे ।
नहीं होय उद्धार ना बेडापार जो तारीफ हमारी ना करिहे ।।
पावै लाभ अपार यूनियन गर नूतन कविता की लेवे ।
हैल्मेट बिन बीमा के कोऊ कवि सम्मेलन में ठुकवे ।।
बस करता जा तारीफ
, पल्ले भले ना अधेला समझे ।
तुकबंदी बकवास की ये नूतन कविता समझे ।।
हैलमेट औ बीमा संग ट्रेनिंग कविता की देंगे ।
टैक्नालाजी औ मार्केटिंग संग कवि कबिरा नाम धरेंगे ।।
कहाँ फकीरी और गरीबी में लिये ताँत और बान ।
हुक्का बीडी और तमाखू
, कैसे मिटे थकान ।।
ऊँच सोसाइटी ऊँची संगत ऊँची बडी दुकान ।
कविता बिकती तारीफें बिकतीं बिकता है सम्मान ।।
चढी पसेरी हाट में तुलतीं
, कबिरा की पद बन्ध ।
कबिरा उलट बांसी ऐसी रची प्रस्तुत ये इक बंध ।।
ज्यों की त्यों धर दीनि चदरिया अब बोले संत कबीर ।
प्रिया फकीरी और गरीबी इनसों पैदा भयो कबीर ।।
ना नूतन पाखंड चहूँ
, ना चाहूँ बडी दूकान ।
मंडी तुम्हार चलती रहबे होय फरक पहचान ।।
कबिरा एम.ए. ना करी
, ना बन पाये अन जीनियर ।
पर पी.एच.डी. कर रहे कई कबिरा औ रहीमा पर ।।


.....जारी रहेगा क्रमश:

 

नरेन्‍द्र सिंह तोमर ''आनन्‍द''